Madhu varma

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लेखनी कविता - दीप से दीप जले -माखन लाल चतुर्वेदी

दीप से दीप जले -माखन लाल चतुर्वेदी 


सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
 कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।

 लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
 लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
 लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
 लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
 लक्ष्मी सर्जन हुआ
 कमल के फूलों में
 लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।

 गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
 सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
 मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
 सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
 शकट चले जलयान चले
 गतिमान गगन के गान
 तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

 उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
 रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
 गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
 भवन-भवन तेरा मंदिर है
 स्वर है श्रम की वाणी
 राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।

 वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
 खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
 सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
 आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
 तू ही जगत की जय है,
तू है बुद्धिमयी वरदात्री
 तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

 युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
 सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।

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